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गुरुवार, 1 अगस्त 2013

जब मुन्नी बनी मुन्नी मोबाइल

एक थी मुन्नी।उसका नाम जरूर मुन्नी था पर न तो वह बदनाम थी और न ही उसका झंडू बाम से कोई सम्बन्ध था।वैसे तो वह इतनी मुन्नी थी भी नहीं।वह तो ठीकठाक शक्ल सूरत और अक्ल वाली युवती थी।वह थोड़ा बहुत लिखना पढ़ना जानती थी।उसके पास देखने के लिए कुछेक सपने थे जिन्हें वह बार बार देखा करती थी।उन सपनों में से एक ऐसा सपना भी था जिसे देखने के लिए उसे नींद की जरूरत कभी महसूस नहीं हुई।वह एक अदद मोबाइल का सपना रात दिन देखा करती थी जिससे वह मनचाहे गाने और फिल्म जब चाहे गुपचुप देख सुन सके।
वह एक गारमेंट फैक्ट्री में तैयार कपड़ों को पैक करने का काम करती थी।इस फैक्ट्री में विदेशों को निर्यात होने वाले कपड़े बनते थे।वह हफ्ते में छ: दिन सुबह आठ से पांच तक पैकिंग का काम करती जिससे उसे आठ सौ रुपये की हर माह पगार मिलती।उसकी जिंदगी बिना किसी रुकावट और खेद के साथ बीत रही थी।कभी कभी कपड़ों को पैक करते हुए वह उन्हें देख कर मुग्ध हो जाती थी।वह चारखाने वाली छोटी सी स्कर्ट देखती तो यह सोच कर शरमा जाती कि हाय दईया इसे कौन कैसे पहन पाती होगी।कभी वह झीनी सी फ्रॉक देखती तो  लजा जाती।
मुन्नी भले ही कम बढ़ी लिखी थी पर वह अपने आसपास की दुनिया और वहां के हालात को ठीक से जानते थी।उसे ये विदेश जाने वाले कपड़े अच्छे तो लगते थे  पर इतने भी अच्छे नहीं कि उन्हें धारण कर पाने का कोई ख्वाब संजोती।मुन्नी की तो बस यही साध थी कि जैसे तैसे उसे एक अदद मोबाइल मिल जाये।वह जानती थी कि यह उसे तभी मिल सकता है जब वह कम से कम बीस माह तक सौ रुपये बचाए।उसे पता था कि यह काम इतना आसान नही है।उसने एक बार कोशिश की थी पर वह अपनी बचत को कभी अपने स्मैकिये  भाई  की गिद्ध दृष्टि से बचा नहीं पाई।
फिर एक दिन ........वह उस दिन भी और दिनों की तरह फैक्ट्री में अपने काम में लगी थी|वहां गोदाम में भारी उमस थी।उसने अपनी बहुरंगी सूती चुनरिया उतार कर पैक सामान के ऊपर रख दी थी।तभी फैक्ट्री में दो गोरे चिट्टे मर्द और एक शफ्फाक मेम नमूदार हुए।उनके साथ फेक्ट्री मालिक चल रहा था और पीछे पीछे खींसे निपोरता एक सुपरवाइजर। वे तैयार माल देखते आगे बढ़ रहे थे।तभी मेम उसके पास आकर ठिठकी।उसने अंग्रेजी में फैक्ट्री मालिक से क्या  कहा ,मुन्नी की समझ में कुछ नहीं आया।मेम उसकी चुनरिया को एकटक निहार रही थी।तब फेक्ट्री मालिक की आवाज उसे सुनाई दी मुन्नी चल अपना दुपट्टा ओढ़|यह मैडम तेरी तस्वीर उतारेंगी।वह झट से अपनी चुनरिया ओढ़ कर खड़ी हो गई।मैडम ने उसकी अपने कैमरे से अनेक तस्वीर उतारी।फिर वह वैरी नाईस - वैरी नाईस कहते हुए आगे बढ़ी।फिर उसे  कुछ याद आया।उसने अपने बैग से निकाल कर एक चमकदार काले रंग का मोबाइल उसकी ओर बढ़ा दिया।गिफ्ट .....इट इज फॉर यू।
मुन्नी उसे हाथ में लिए हक्की बक्की से खड़ी रही।उसे यकीन नहीं हुआ  था कि सपने ऐसे भी साकार हो जाते हैं।उसने अपने मोबाइल में सिम डलवाया।कुछ गाने और फ़िल्में भी उसमें डलवा लिए।अब उसके मोबाइल की घंटी जब -तब बज उठती थी ।कोई उसे बीमे कराने का लाभ बताता है तो कोई उसे घटी दरों पर बैंकाक भेजने की बात करता ।शोहदे उससे उसकी एक रात की कीमत पूछते । कोई उसे दोस्त बनाने की बात करता ।लगभग सारा बाजार  मोबाइल के सहारे किसी न किसी तरह उस तक आ पहुंचा था।
अब वह मुन्नी नहीं मुन्नी मोबाइल बन गई थी।पूरी फैक्ट्री के लोग उसे इसी नाम से जानने और पुकारने लगे ।उसे पता लग गया था कि सपनों का यूं पूरा हो जाना कभी कभी उस मिलावटी दूध की तरह होता है जिसमें उस पोखर की मरी हुई मछलियाँ भी चली आती हैं जहाँ से उसमें पानी मिलाया गया था.

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

संत वेलेंटाइन तुम्हारा स्वागत है !!!




संत वेलेंटाइन वक्त से पहले ही प्यार के बिंदास इजहार और पारिवारिक प्यार की लड़ाई लड़ते हुए तत्कालीन रोम के राजा के हाथों मारे गए l उनको मरे अरसा हुआ lवह चूंकि मर गए थे तो वो किसी की जिंदगी में प्यार की बहार ले कर आते भी तो कैसे l उस समय तक जो एक बार इस दुनिया से विदा हुआ वह कभी लौट कर नहीं आता था lकिसी किताब में रखे सूखे हुए फूलों की तरह याद बन कर या ऐसे वैसे कैसे भी l अलबत्ता तमाम शायर कवि और लेखक उसके आने की अफवाह जरूर फैलाये रहते थे lपर इन अफवाहों पर कोई कान नहीं देता था lवह समय ही कुछ ऐसा था तब तक अफवाहें केवल अफवाहें ही रहती थींl उनका सच के रूप में भूमंडलीकरण नहीं हो पाता था lहम तब तकनीकी रूप से इतने संपन्न कहाँ थे ? यह अलग बात थी लोग प्यार तब भी करते थे और उसका इज़हार करते हुए बड़े धीर गंभीर और सतर्क रहते थे l
मुझे यह बात आज भी कचोटती है कि हमारी उस उम्र में जब हमारे भीतर प्यार और उसके इजहार का जज्बा बलबलाता था तब संत वेलेंटाइन अपनी कब्र में पुरसुकून नींद में सो रहे थे l वह यदि तब आये होते तो बात ही कुछ और होती lहो सकता है कि हम अपनी जवानी के लम्हों को सलीके से जी लेते l लेकिन उन दिनों ऐसा कुछ था ही नहीं इसलिए हम हम ठीक से जवान हुए बिना यकायक ही बचपन से अधेडावस्था मे आ  गए l ऐसा केवल मेरे साथ ही नहीं हुआ ,चंद आवारा लौंडों ,शोहदों और बिगड़ैल खानदानी रहीसों के अलावा जवानी तब  किसी और के जीवन के आसपास भी नहीं फटकती थी l
लेकिन अब हालात बदल गए हैं l हर ऐरे -गैरे नत्थू- खैरे के पास जवानी आती है l वह चूंकि बड़े पुरलुत्फ अंदाज में आती है इसलिए उसकी स्थाई प्रदर्शनी निरंतर भिन्न –भिन्न रूपों में चलती ही रहती है lइस मोबइल नुमाइश को कस्बों शहरों महानगरों में सरेराह कभी भी देखा जा सकता है l सुना है कि अब तो संत वेलेंटाइन का पुनरागमन हो चुका है l वह अपनी ख्वाबगाह से निकल आये हैं l उन्हें बाजार ने अपना ब्रांड एम्बेसडर बना दिया है l हर साल वह बेनागा गिफ्ट बेचने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सजी धजी दुकानों पर टेडी बेयर ,दिल के आकार वाले गुब्बारों ,निर्गंध फूलों के बुके ,हृदयाकार चाकलेटों ,पेस्ट्रीज ,च्विंगम ,लालीपाप और तरह तरह  के ग्रीटिंग कार्डों के जरिये हर उस शख्स तक ज़रूर पहुँचते हैं जो वास्तव में जवान (हाई स्कूल के सर्टिफिकेट के अनुसार ) या अपने युवा होने के विभ्रम को कामयाबी से ओढ़े होते हैं l काश ! हमारी जवानी आने के दिनों में ऐसा हो पाता l हम भी तो देखते कि जवान दिल  वास्तव में जब किसी के प्यार में धड़कता है तो कैसा होता है उसका अहसास   l हमारे पास तो जवानी के मामले में जो आधी अधूरी जानकारी है वह हमें नीले पीले लुगदी साहित्य या उस लिटरेचर के जरिये मिली हुई है ,जिसे लोग तब भी और आज भी बड़ा उबाऊ लेकिन अपनी सांस्कृतिक धरोहर मानते हैं lप्यार के इजहार का व्यवाहरिक फलसफा तो मैं कभी सीख ही नहीं पाया l
मेरा तो मानना है कि हमारे समय के लोग निहायत दकियानूस थे l उन्हें प्यार के सैद्धांतिक पक्ष का तो पता था l उसकी मीमांसा करना भी खूब आता था lथियोरी में हमारी प्रतिभा असंदिग्ध थी पर प्रेक्टिकल में मामला शून्य से ऊपर कभी नहीं गया lसंत वेलेंटाईन ने अपने इस नए अवतार में आकर चमत्कार कर दिखाया है l वेलेंटाइन डे विरोधियों के लिए बुरी खबर यह है कि लाख पहरे बैठाने के बावजूद वह युवा दिलों में अपनी आमद ज़रूर दर्ज करेगा lवेलेंटाइन समर्थकों के लिए खुशखबरी यह है कि वेलेंटाइन के साथ अब अरबों खरबों का बाजार है ,उसके आगमन को रोक पाना किसी भी नैतिकतावादी के बूते की बात नहीं l
आओ ,संत वेलेंटाइन आओ ,स्वागत है तुम्हारा l यदि संभव हो तो उन निर्धनों ,दलितों ,शोषितों ,पीड़ितों की जिंदगी  और नफरत से बजबजाती  बस्तियों में भी आना जहाँ  सदियों से तुम्हारे आने का  इंतज़ार हो रहा है l

शनिवार, 21 जुलाई 2012

बापू नहीं सिर्फ मोहनदास कहें




अब तो बात एकदम साफ हो गयी है |सरकार ने महात्मा गाँधी को कभी औपचारिक रूप से राष्ट्रपिता की उपाधि नहीं दी थी |इस देश के लोग उन्हें यूं ही राष्ट्रपिता कह कर पुकारते आये थे जैसे किसी मोहल्ले के दबंग को दादा भईया काका आदि कहने लगते हैं |अब तक हम बापू का असम्मान, आलोचना और उपेक्षा होने पर भावुक हो जाते थे |पर अब इस सरकारी स्वीकोरिक्ति ने बता दिया है कि वह कोई राष्ट्रपिता –विता नहीं हमारी आपकी तरह एक साधारण आदमी थे और एक आम आदमी का कैसा मान और  क्या सम्मान |आम आदमी तो होता ही है सरकारी तंत्र के लिए सकल  ताड़न का अधिकारी |
इस खुलासे ने देश भर के घर  माताओं पिताओं  के लिए अजब असमंजस की स्थिति पैदा कर दी है |उन्हें लगने लगा है कि उनकी संतति कभी भी यह सवाल खड़ा करके उनकी जान सांसत में डाल सकती है कि आपको किस नियम अधिनियम के तहत माता पिता कहलवाने का अधिकार कब और किसने दिया था ?यदि माता पिता कहलवाने का शौक है तो जाओ, पहले किसी मान्यता प्राप्त आईएसओ प्रमाणित लैब का अपने  डीएनए की जाँच का  प्रमाणपत्र लाओ |
महात्मा गाँधी के लिए अब मामला बड़ा ज़टिल हो गया है |उनके पास अपने पक्ष में कहने के लिए न तो कोई तर्क है ,न वैज्ञानिक साक्ष्य और न ही शारीरिक उपस्थिति |उनके पास केवल देशवासियों से मिलने वाला आदरसूचक संबोधन था ,वह भी तिरोहित हुआ |ले –दे कर दो अन्य आदरणीय विशेषण बचे हैं –बापू और महात्मा |ये विशेषण भी विवादास्पद  हैं |उनको महात्मा कहे जाने से धर्मनिरपेक्ष और तथाकथित धार्मिक पहले से ही असहज रहते आये हैं |धार्मिक उन्हें महात्मा कहलाये जाने के लिए जन्मना अहर्ताओं के अभाव में टेक्निकली अयोग्य मानते हैं और धर्मनिरपेक्षों को किसी भी प्रकार की धार्मिक शब्दावली बर्दाश्त नहीं |उनको हमेशा गाँधी जी के साथ जुड़े इस महात्मा शब्द से ही नहीं  वरन उनके द्वारा गायी जाने वाली रामधुन पर भी  घोर आपत्ति रही है |
बापू के संबोधन में भी कठिनाई है क्योंकि वह अपने पीछे आदर्श ,सदाचरण, देशप्रेम और विचारों का चाहे जो जखीरा छोड़ गए हों पर भौतिक सम्पदा के रूप में अरबों खरबों की प्रापर्टी या  कोई स्विस कोडवर्ड तो किसी को  नहीं देकर गए कि लोग  उन्हें बापू बापू कहते  फिरें  |धनवान बापुओं के लाखों वारिस खुदबखुद पैदा हो जाते हैं और निर्धन  पिताओं को तो पिता कहने में भी बेटों की जुबान दुखती  है |जब तक उनके राष्ट्रपिता होने की भ्रान्ति मौजूद थी तब तक बात कुछ और  थी |लेकिन अब वह किसके  बापू ?
राष्ट्रपिता ,महात्मा और बापू का विशेषण छिन जाने के बाद वह महज मोहनदास करमचंद गाँधी रह गए हैं |अब वह एक ऐसे  आमआदमी हैं ,जिसको मरे खपे अरसा हुआ |यह मुल्क आमआदमी के जब जिंदा होने का संज्ञान ही नहीं लेता ,वह  दशकों पहले स्वर्ग सिधारे व्यक्ति की भला क्या सुध लेगा ?उनका नाम अब न तो जनमानस को झकझोरता  है , न आदर जगाता है ,न किसी वोट बैंक के लिए डुगडुगी बनता  है और न ही हमारी स्मृति को समर्द्ध करता है |मोहनदास कर्मचंद गाँधी  का नाम लगभग छ दशक पूर्व  मृत्यु रजिस्टर में लिखा गया था ,उसकी अब अधिकारिक पुष्टि हो गयी |



गुरुवार, 19 जुलाई 2012

डर्टी डर्टी कितनी डर्टी !!!



दैहिक उत्तेजना से भरपूर रोमांचक आभासी दुनिया के बाशिंदों के लिए एक अच्छी खबर है कि अब डर्टी फिल्म बुद्धू बक्से में प्रकट होगी |नैतिकतावादियों के लिए संतोष की बात यह है कि सेंसर बोर्ड ने काट छांट कर ,धो पोंछ कर ,उसकी गंदगी को बुहार कर उसके  डर्टी अंश साफ़ कर दिये हैं |इस  साफ़ सुथरी फिल्म से अब हमारे मुल्क के चाल, चरित्र और चेहरे पर कोई कालिख पुतने वाली नहीं है |हमारी सरकार हमेशा चारित्रिक सबलता की पक्षधर रही है |वह भ्रष्टाचार को एक ऐसी आवश्यक बुराई मानती है जिसका होना लोकतंत्र की सेहत के लिए ज़रूरी है |उसका मानना है कि एक बार चारित्रिक पतन हुआ तो उसका कोई निदान नहीं,घोटालों की कम से कम  भरपाई तो  हो जाती है |धन तो हाथ का मैल होता है |एकबार हाथ धोए नहीं कि हो गए  साफ़ सुथरे  |
रोमांचवादियों को भी अब तक पता लग चुका है कि जो डर्टी फिल्म टीवी पर दिखाई जायेगी उसमें देखने दिखाने और छिपने छिपाने लायक कुछ होगा ही नहीं |वह तो कुछ वैसी  होगी जैसे कोई सनी लिओन के नाम के मोहपाश में बंधा उसके दीदार को जाये और उसे उसकी नामधारी कोई अन्य महिला भजन कीर्तन करती मिल जाये |रोमांचवादियों का स्पष्ट अभिमत है कि सरकार हो या सेंसर बोर्ड दोनों आमआदमी को कभी कभार मिल जाने वाले हर अस्फुट सुख से कुढते हैं |सरकार को आम आदमी का बीस रुपये की आइसक्रीम खा लेना जघन्य अपराध लगता है और सेंसर बोर्ड को कमोबेश प्रत्येक उस दृश्य पर आपत्ति होती है ,जिसे देख कर देखने वाले के मन में कुछ कुछ होने लगता है |सरकार तो आमआदमी के हर मासूम सपने तक को देशद्रोह मानती आयी है |
नैतिकतावादियों की तो बात ही कुछ और है |वे इस मृत्युलोक में विचरण करते हुए सदैव देवलोक में रहते हैं |उनके लिए यह संसार नश्वर ,पानी केरा बुदबुदा ,कागज की  पुड़िया  (जो  पानी की बूँद पड़ते ही घुल जाती  है),निस्सार और समस्त प्रकार के दुखों का कारक है |देवलोक में वे सभी राजसी सुविधाएँ होती हैं जिनका उपभोग राजा रजवाड़े सामंत धनाढ्य जमींदार ,ब्रांडेड धर्मगुरु ,मठाधीश, गद्दीनशीन सत्तासीन आदि इसी धरती पर जीते जी करते हैं |लेकिन आमआदमी के लिए इस धरती पर उनका उपभोग निषेध है |ये सुख उन्हें मृत्यु उपरांत परलोक में तभी मिलते हैं जब वे इहलोक में सप्रयास कष्टों का वरण और सुखों का तिरस्कार करते हैं |इसीलिए वे इस धरती पर जब तक रहते हैं सदैव खुशियों के खिलाफ मौखिक जंग लड़ते रहते हैं |
रोमांचवादियों और नैतिकतावादियों के अतिरिक्त एक और वर्ग भी है जो सदैव इसी असमंजस में रहता है कि वे इस दुनिया में अधिकाधिक सुख बटोरें या परलोक सुधारने में संलिप्त हों |ये न्यूनतम जोखिम उठाकर अधिकतम मुनाफा कमाने की जुगत में रहते हैं |इनको फिल्मों का डर्टी पक्ष बड़ा लुभाता है पर उसे वे देखते हैं चुपके चुपके |डर्टी पिक्चर के खिलाफ जब कोई मोर्चा निकलता है तो वे अग्रिम पंक्ति में रहते है ताकि उनकी सद्चरित्रता सार्वजानिक रूप से प्रमाणित  हो जाये |वे  हमेशा लाभ की स्थिति में रहते हैं |इनका इहलोक चाक चौबंद रहता है और परलोक में पांच सितारा  सुविधाओं वाली बर्थ आरक्षित रहती  है|
 सेंसर की कतर-ब्योंत के बाद प्राईमटाईम इस फिल्म के दर्शक कहेंगे –डर्टी डर्टी कितनी डर्टी ?नो नो :नो नो यह नहीं डर्टी | अब हम इसमें देखें क्या ?


रविवार, 15 जुलाई 2012

मेरे शहर में: ईश्वर कहाँ रहता है ?

मेरे शहर में: ईश्वर कहाँ रहता है ?: सुबह सवेरे मार्निंग वाक के लिए निकला तो रास्ते में  आकर्मडीज़  मिल गए | हाफपैंट और टीशर्ट पहने वह पसीने में तरबतर थे | मैंने उनसे पूछा ...

ईश्वर कहाँ रहता है ?



सुबह सवेरे मार्निंग वाक के लिए निकला तो रास्ते में  आकर्मडीज़  मिल गए |हाफपैंट और टीशर्ट पहने वह पसीने में तरबतर थे |मैंने उनसे पूछा गुरु ,आप यहाँ |विज्ञानियों ने गाड पार्टिकल खोज लिया है |वे सब खुशियाँ मना रहे हैं और आप यहाँ घूम रहे हैं |उन्होंने जवाब दिया कि ज़माना बदल गया है , हमें कौन पूछता है |वैसे भी किसी कामयाबी को हांसिल करने  पर उनकी तरह ताली पीटना हमें आता नहीं |यूरेका यूरेका करते हुए सड़क पर दौड़ना अब बड़ा जोखिम भरा काम है |
वो कैसे ,मैंने पूछा |
तुम्हारे मुल्क में नंगे आदमी को कुत्ते दौड़ा लेते हैं और पूनम पांडे और सनी लिओन सरीखी को सर माथे पर बैठाते हैं |जिसे बंधा रहना चाहिए वो खुला घूमता है और जिन्हें मुक्त होना चाहिए उनपर लाखों पहरे हैं |  आकर्मडीज़ के जवाब में हताशा थी ,
फिर भी ईश्वर का कुछ अता पता तो मिला |यह एक बड़ी उपलब्धि है |मैंने कहा |
काहे की उपलब्धि जी ,ईश्वर गुम कब हुआ था जो मिल गया |वह तो तब भी था जब मैं अपने बाथटब से निकल कर नंगा सड़क पर दौड़ा था |वह इससे पहले भी था और आज भी है ,हमारे आसपास ,उन्होंने तुरन्त कहा |
ईश्वर लापता तो नहीं था पर उसका कम्प्लीट एड्रेस भला किसके पास था |मैंने प्रतिवाद किया |
कम से कम तुम तो ऐसा न कहो  |यदि ईश्वर लापता होता तो तुम्हारे  यहाँ इतने तथाकथित धर्म गुरुओं ,ज्योतिषियों,तांत्रिकों,नजूमियों  का कारोबार कैसे चलता |वह बहस को आगे बढ़ाने के मूड में थे |
पर आप यह तो मानेंगे कि गाड पार्टिकल मिला है तो एक दिन उसके साक्षात दर्शन भी हो जायेंगे |मैंने फिर कहा |
हाँ हाँ हो जायेंगे |पर उनके दर्शन से होगा क्या ?उन्होंने अत्यंत चुभता हुआ सवाल दागा |
तब हमारी हर दुःख तकलीफ का समाधान हो जायेगा |जीवन खुशियों से भर जायेगा |मैं हार मानने को तैयार न था |मैंने कहा |
अब तक यह काम कौन करता आया है ?तुम्हारा  सरकारी तंत्र तो कभी कुछ करता नहीं |वही है जो तमाम प्रशासनिक निकम्मेपन के बावजूद इस मुल्क को अरसे से चला रहा है |आकर्मडीज़ के स्वर में तल्खी थी |
मैं उनके इस कथन के बाद निरुत्तर होने के करीब था |मैंने एक और कोशिश की,कहा ,ईश्वर के सान्निध्य  की चाहत किसे नहीं होती ?
उसका  सान्निध्य पाकर क्या करोगे ?उसे अपनी चाहतों की वो फेहरिस्त थमाओगे जो उसके पास पहले से मौजूद है |उसे अपनी चालाकियों और बेईमानियों  में  दस या बीस परसेंट का भागीदार बनने का प्रपोजल दोगे |अब भी तो तुम्हारी प्रार्थनाओं में यही सब होता है |उन्होंने कहा|
लेकिन ---फिर भी ---मैं हकलाया |
ईश्वर की उपस्थिति का  यूं सार्वजानिक हो जाना कोई अच्छी खबर नहीं होगी |आदमी से उसकी कुछ दूरी का बना रहना ही ठीक है |उसे शांतिपूर्वक अपना काम करने दो  |उससे मिलने मिलाने की बेकार कोशिश न करोआकर्मडीज़ की आवाज़ मानो  किसी गहरे कुएं से आ रही थी |
मेरे पास अब कहने को कुछ बचा न था |मुझे मौन होता देख आकर्मडीज़ हौले से मुस्कराया और बोला ,विदा दोस्त ,मैं चलता हूँ ,मुझे अभी थोड़ी जोगिंग और करनी है और फिर एक ओल्डएज होम जाना है ,जहाँ बीमार ,निराश, घर -परिवार नाते रिश्तेदारों द्वारा  ठुकराए ,समाज के सताए बूढ़े लोग मेरा इंतज़ार करते होंगे |उन्हें हमारे प्यार दुलार देखभाल की ज़रूरत है |सच कहूँ इस खुदगर्ज़ दुनिया में ईश्वर वहीं रहता है |उसका सही पता किसी  विज्ञानी को  कभी नहीं मिलने वाला |
यकीन मानो ,ईश्वर वहाँ नहीं रहता जहाँ उसे तुम अक्सर ढूँढा करते हो |वह किसी मंदिर ,मस्जिद ,चर्च ,गुरूद्वारे या अन्य इबादतगाहों में नहीं रहता | उसे किसी भजन कीर्तन  कव्वाली तन्त्र मन्त्र या पुरजोर प्रार्थना के जरिये  नहीं पा सकते |वह रहता है हर मेहनतकश के उस निवाले में जिसे वह किसी भूखे के साथ बांटता है ,उस जांबाज़ तैराक की बाँहों में जो डूबते हुए को बचाने के लिए बाढ़ से उफनती नदी में अपनी जान जोखिम में डाल कर कूद पड़ता है ,कुछ नया रचने मे संलग्न किसी कलाकार की जिद में ,अन्याय के खिलाफ डट कर खड़े आदमी की रूह में ,हालात से जूझने वालों के साहस में ,निराशा के घटाटोप में उम्मीद के किसी टिमटिमाते दिए की लौ में या संत कबीर की उस वाणी में जो हर  पाखण्ड को धिक्कारती है |




रविवार, 13 मई 2012

शोकगीतों का कोई अंत नही



मेरे लिखे को पढ़ने के बाद एक मूर्धन्य आलोचक ने सवाल किया है कि मुझे अपने शहर में कभी भी कुछ सकारत्मक क्यों नहीं दिखता |उनकी इस टिप्पड़ी के बाद मुझे लगा कि मेरी दूर दृष्टि में ही संभवतः कोई खोट है कि मुझे अच्छी चीजें या तो दिखाई नहीं देतीं या दिखती हैं तो बहुत धुंधली |वैसे तो समस्या मेरी नज़दीक की नज़र में भी  है |लेकिन मैं ऐहतियातन पास देखने वाला चश्मा डोरी में ऐसे  बांध कर सीने से लगाये रहता हूँ जैसे वह कोई चिड़िया का बच्चा हो जो हाथ से छुटा नहीं फुर्र हुआ |कबूतरबाजी की भाषा में कहा जाये तो कहना होगा कि मैंने अपनी ऐनक के पर कैंच कर रखे हैं ताकि वो इधर उधर न होने  पाये |फ़िलहाल मैं अपनी नजदीकी नज़र से अपने शहर को देखने परखने की कोशिश कर रहा हूँ |
इसे आप संयोग  कह सकते हैं कि मैं अपने शहर के गौरव बिंदु तलाशरहा था और चेन झपटमार पूरे शहर को अपनी झपटमारी के करतबों को खुलेआम दिखाते निर्द्वंद घूम रहे थे |इसमें अनेक महिलाएं लुटी |खूब रोना धोना हुआ |इसी झपटमारी के चलते  अनीता की जान चली गयी |लुटेरे अपने मकसद में कामयाब रहे उनमें से न कोई घायल हुआ ,न पिटा ,न पकड़ा गया |बड़े बड़े शहरों में ऐसी छोटी मोटी वारदातें होती रहती हैं |लेकिन मेरे भीतर अभी तक वही कस्बाई मानसिकता रहती है जो दिवंगत अनीता के मासूम बेटे नमन की तरह बात बात पर  सहम जाती  है |अपनी मम्मी को चंद झपटमारों के हाथों बेमौत मारे जाने को वह शायद ताउम्र नहीं भूल पायेगा |क्या इस हादसे के बाद उसकी ज़िदगी और उसे देखने का नजरिया पहले जैसा   रह पायेगा  ?
मेरे शहर में जब अपने युवा होते बेटे की बाईक पर पीछे निश्चिन्त बैठी माँ पुलिस थाने और उसके आला अफसर के आफिस के सामने यूं बेमौत मारी जा सकती है तो यहाँ सुरक्षित कौन है ?आधी रात को कुख्यात काली पल्सर पर सवार तीन –तीन  बदमाश सड़क से पुलिस की चौकस निगाहों को धता बताते धडल्ले से निकल जाते हैं तो इसको क्या कहा जाये ?बदमाशों की कार्यकुशलता पर उनकी शान में कसीदे काढे जाएँ ?पुलिसिया संवेदनशीलता पर यकीन कायम रखा जाये ?या फिर नमन के दुर्भाग्य को नियति की होनी मान कर चुपचाप स्वीकार कर लिया जाये ?
मित्रों ,यह कोई व्यंग्य नहीं है |किसी की मौत पर हंसना सीखने के लिए मेरे शहर को अभी एक लम्बी यात्रा तय करनी होगी  |अपने  तमाम खुदगर्ज़ आचरण  के बावजूद इस शहर के लोगों के आंसू दूसरों की पीड़ा पर अभी तक बरसते हैं |मेरा यकीन करें कि ये आंसू कतई घडयाली नहीं हैं  |इस दर्दनाक हादसे ने अनेक ऐसे असुविधाजनक सवाल खड़े कर दिए हैं जिनका उपयुक्त जवाब ढूढे बिना निजात नहीं |इन सवालों को किसी टान्ड पर सरका कर यह कहने से काम नहीं चलेगा कि जो हुआ सो हुआ फिर कभी नहीं होगा |मैं ताकीद कर दूं कि प्रोफेशनल लुटेरे किसी की जान की परवाह नहीं करते |इनके दिल न पिघलते हैं न बदलते हैं |इनको इनके उन बिलों से ढूँढ निकालना ज़रूरी है जो इनके आकाओं ने निहित स्वार्थ के चलते उपलब्ध करा रखें हैं |ऐसे ज़रायम पेशा लोगों का कोई मजहब नहीं होता |लेकिन यह रहते यहीं हैं –हमारे इर्दगिर्द|ये किसी दूसरे ग्रह से आये प्राणी नहीं हैं |वे इसी शहर में रहते हैं यहाँ की हवा में सांस लेते हैं |यहाँ का अन्न जल पाते हैं और इसी शहर के  सीने पर खुलेआम मूंग दलते  हैं |क्या इनका पता वाकई किसी को भी नहीं मालूम ?
चंद गुंडों, मवालियों ,चेन झपटमारों ने पूरे शहर का सुखचैन छीन लिया है और मुझसे कहा जा रहा है कि इस शहर की शान में कुछ लिखूं |मैं अभी तक फरेबी शब्दजाल बुनने की कला सीख पाने में असमर्थ रहा हूँ |यही वजह है कि मैं इस शहर के चौखटे के लिए मिसफिट हूँ | फिलहाल तो मेरा दिल दिवंगत आत्मा के प्रियजनों के आंसूंओं से तरबतर है इसलिये   हँसने हंसाने की बात कर पाना मेरे लिए असंभव हैं |इसबार यह शोकगीत पढ़ें और इसे पढ़ने के बाद रोने का मन करे तो संकोच न करें | अभी तो इस शहर के मुक्कद्दर में न जाने कितने शोकगीतों का साक्षी बनना लिखा है |
निर्मल गुप्त
मोब.08171522922

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